Monday, March 28, 2011

हवा महल

इस दीवानी दुनिया में, इक दीवाना घूमता है
इश्क की तनहाइयों से कोई बहाना ढूंढता है

घूमता फिरता शहर दर शहर, वोह इस बडे से हवामहल में आ पहुंचा 

ढूंढता है इस हवामहल में की कोई प्यारा लम्हा मिल जाये
छोटा मोटा ही सही कोई बहाना मिल जाये 

हर खिड़की पर एक लम्हा अपने आप को बेच रहा था 

इतनें सारे लम्हों  में उसे तलाश बस एक झलक सच्चाई की 
नौटंकी की पपड़ी उतर फेक , एक फांक अच्छाई की 

छील छील के दीवारें, महल नंगा हो गया है पूरा पर दीवारें और खिड़कियाँ अब भी गूगी रही 

तभी एक छोटी सी दबी कुचली सी आवाज़ आती है
सामान के ढेर के नीचे से दबी हुई सी बुलाती है 

उसकी बुदबुदाहट भी दुनिया के शोर से ज्यादा साफ़ सुनाई दे रही है 

वोह हाथ बढ़ा के आवाज़ को सहारा देता है तोह वोह बोलती है
और सबसे बड़ा जीवन का रहस्य खोलती है

मुर्ख, मृगतृष्णा में बावला हुआ फिरता है तू

यह महल, सामान, दीवारें और खिडकियों से बहार निकल
और ज़िन्दगी की धरा में बेख़ौफ़ बह जा विकल

जो मिला न मिला, जो खिला न खिला 

उम्मीदों की उड़ान सारें ऐशों आरामों की राख पे चलती है
उस राख की हर फांख एक नयी मंजिल फलती है 

स्वाद की मिठास जीभ पर कम और मन में ज्यादा पकती है 

उसी आवाज़ में उस दीवाने की दीवानगी का खुदा था शायद... जो वोह खुश हो के, पोटली बाँध और नयी मंजिलों को तीरता हुआ एक नए हवा महल की तलाश में निकल पड़ा...एक आखिरी हवा महल...आखिर मृगतृष्णा का सवाल है बाबा :)

- संदीप नागर

1 comment:

nagardee said...

i had forgotten the word mrigtrishna :)
its a nice poem, i should say as good as a professional one.

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