Sunday, August 14, 2011

आज़ादी का लड्डू

आज़ादी का लड्डू

बहुत साल हुए की स्कूल के ज़माने से देखा मैने
आज़ादी के मायने एक लड्डू और छुट्टी में समाये हुए थे

सुबह झंडा फेहरा के एक मशीनी कतार में खडे होके जोर जोर से नारे लगाने का इनाम
एक लड्डू, कुछ भाषण और यह जानना की देश की शान में एक और साल जुड़ गया है और देश और महान हो गया है

फीके भाषण और फीकी देश की शान के बदले, मीठे लड्डू उस दिन की लाज बचा लिया करते थे
तब मैं सोचता था की लड्डू ना होते तो इस १५ अगस्त की फीकी आज़ादी को कैसे पचा पाता

थोडा बड़ा हुआ तो जाना की लड्डू और आज़ादी का रिश्ता और भी मज़बूत है
अब मेरा वही आज़ादी वाला लड्डू, बूंदी का ना होके ठोस विचारों का बनने लगा था

वोह विचार जो कभी बचपन में किताबों के पन्नों में छपे थे और दिलोदिमाग पर छाप बना चुके थे
लड्डू की मिठास की पहचान अब इन विचारों के अमल में महसूस होती थी

पर भाई यह नया लड्डू तोह पचाने में बड़ा जद्दोजेहत वाली चीज़ निकला
एक एक विचार सामाजिक दीवार पे माथा मारे और चूर चूर होकर वहीँ धूल में मिट जाये

ज्यादातर दोस्त इस बदहजमी भरे लड्डू का मोह छोड़ दुनियादारी से हाथ मिला बैठे
बोले बेटे बडे हो गए हो अब! दुनियादारी समझो और बच्चों के किताबी विचारों से बहार निकलो

असली दुनिया में सब कुछ बिकता है और ख़ास तौर पे यह आज़ादी का लड्डू बहुत कीमत दिलाता है
बस एक बात का ख़याल रहे, यह एक बार बिकता है क्यूंकि बिकते ही साड़ी मिठास हवा हो जाएगी

और मैं ठहरा मीठे का दीवाना तो
बस इसी शर्त ने मेरे आज़ादी के नन्हे लड्डू को बचाए रखा
और उसकी मिठास ने ज़िन्दगी के मायनों को टिकाये रखा

कल फिर १५ अगस्त के बहने मैं खुद के लिए और वही आज़ादी का लड्डू बनाऊँगा
आप खाओगे ?




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