Saturday, October 11, 2008

झंडा ऊंचा रहे "हमारा"

हिन्दुस्तान किसका हैं?
एक झंडे ने दूसरे से पुछा

एक था लाल और दूसरा था हरा
जैसे ही दोनो को टकराया गया
दोनो ने एक ही सवाल पुछा
तू बड़ा की मैं बड़ा
और यह हिन्दुस्तान आख़िर हुआ किसका

लाल बोला की मेरे लोग कहते हैं
हिन्दुस्तान हिंदू का
बाकी सब "बाहर के लोग" हैं जिन्होने इसे लूटा
तभी हमें सिखाया गया की इनको सबक सिखाओ
सदियों का बदला मिनटो में लेना हैं
इसी बहने थोडी राजनीति भी हो जायेगी
मन्दिर मस्जिद बने या उजडे
कम से कम कुर्सी तोह मिल जायेगी

तभी हरा झंडा बोला
अरे! यह तोह मुझे भी सिखाया हैं
बिल्कुल "इसी अंदाज़" में समझाया हैं
की हम हिन्दुस्तान के मालिक हैं
हमनें हिन्दुस्तान को यह रूप दिया
वरना हमसे पहले यह छोटे टुकडों में आपस में लड़ता था
अब वही शान्न्दार और जान्न्दार ज़माना वापस लाना हैं

तभी वहां से एक सफ़ेद झंडा निकला
बिल्कुल सफेद
इनके पास आया और बोला
हिन्दुस्तान तोह मेरा हैं
तेरा भी और तेरा भी और बाकि सबका भी
किसी एक का हक कैसे हो सकता हैं
कौन कह सकता हैं की वोह आदम की पहली संतान हैं
तब सब झंडे चुप होके सुनने लगे
पहली बार लाल और हरे झंडे साथ साथ खडे थे
और लड़ नही रहे थे

सफ़ेद वाला बोला की कोई बताएगा की पहला हिन्दुस्तानी कौन था
सारे झंडे सोचने लगे
काफ़ी सोच के एक लाल वाला बोला
शायद आर्य पहले आए थे
तोह हरा वाला बोला, ओये द्रविड़ तोह उससे भी पहले थे
तब सफ़ेद वाला बोला की पहला इंसान तोह अफ्रीका से कहीं पहले ही  चुका था

फिर सब चुप
एक "समझदारी" भरा सन्नाटा
फिर "नासमझी" ने उस सन्नाटे को तोड़ दिया जब
एक लाल वाला झंडा बोला तोह क्या हुआ
संस्कृति तो हमारी ही सबसे पुरानी हैं
बाकि लाल वालो ने ज़ोरदार हामी भर दी
तोह सफ़ेद वाला फिर बोला
संस्कृति तोह हजारो सालो से बदलती रही समय के साथ
क्या यकीन के साथ कहोगे की
अपनी जंगलों में रहने वाला पूर्वजो की संस्कृति
और तुम्हारी संस्कृति में फरक नही होना चाहिए
क्या हजारो साल में कुछ नही बदलना चाहिए

फिर एक हरे वाले ने हूक लगायी
यह सब बेकार की बात हैं
हमें तोह आज से मतलब होना चाहिए
आज में जीना हैं कि बीते कल की कबर पर लेटना हैं

कुछ हरे वालों ने हामी भरी और हैरानी की बात
कुछ लाल वाले भी बोले की शायद बात सही हैं

फिर सफ़ेद वाले ने कहा
तोह आज में जीना तय हुआ
कल जो बीत गया सो बीत गया
कल के बेवकूफो की गलतियो पे आज क्यो नाचें हम

तब एक लाल वाला बोला की
लेकिन एक सवाल तोह फिर भी रहेगा
"लाल और हरे का अन्तर कैसे मिटेगा?"

फिर सब चुप
काफ़ी देर चुप्पी रही
यह चुप्पी एक जवाब बुन रही थी
वोह जवाब जो सारे सवालो का हल होगा
बस सी एक जवाब को ढूँढ रहे हैं अभी तक वोह सारे झंडे

पर इतना सब समझने के बावजूद

अभी तक लड़ रहे हैं लाल और हरे झंडे

-- संदीप नागर

Friday, October 10, 2008

वार्तालाप



आजकल कुछ अजीब सी हलचल हैं जीवन में
पीछे झाँक कर देखता हूँ तो पिछले हालत मुझसे बात करते हैं
मुझसे कान में फुस्सुसा कर बोल जाते हैं
सारे ख्वाब जो मैने देखे थे उस समय
कुछ पूरे हो गए और कुछ अधूरे रह गए
और वोह पुरानी बातें जिन की वजह से
मैने अपनी ज़िन्दगी यूँ बनायी और यहाँ तक आया

पर एक सवाल ने पिछले कुछ दिनों से घेरा हुआ हैं
की इस सब के बीच
कब और कैसे मैने अपनी आप को दुनिया से काट दिया
वोह सब जरूरी भी था क्यूंकि
बुरे हादसों की याद भुलाने के लिए
और आगे बढ़ने के लिए
मुझे ख़ुद को काटना पड़ा
पर अब इस मंजिल पर
कुछ अकेलापन महसूस होता हैं

पर फिर भी अकेलापन तो हैं पर "
अधूरापन" नही हैं
यही सबसे बड़ा सच हैं जो सहारा देता हैं

अगर मैं सब समझोते कर लेता तोह अकेला तोह नही होता पर अधूरा जरूर हो जाता

साथी मिले न मिले
पर पूरा होना बहुत जरूरी हैं

शायद सबसे जरूरी हैं
खालीपन एक खोकला इंसान बनता हैं जो किसी और का सही मायनों में साथी भी नही बन सकता

अकेलापन अभिशाप नही हैं पर खालीपन जरूर होता

भाई कहता हैं की मैने अपनी सब तरफ़ काफ़ी कड़ी दीवार बना रखी
हैं

सही कहता हैं, पर हैरानी यह की कोई नही जो इस दीवार को भेद सके
पूरी दुनिया में क्या कोई नही

ऐसी भी कोई ख़ास दीवार नही हैं
सीधे साधे से उसूलों का ढांचा हैं जो एक सीधा साधा सा इंसान चाह रहा है भेदने को
मुखौटे वाले इंसान नही भेद
पाते

एक पूरा इंसान जो अकेला भले ही हो पर अधूरा न हो

एक ऐसा इंसान जो दोस्ती और रिश्तों को दुनियादारी से अलग कर देख पाए
जो सिर्फ़ ईमान से ख़ुद से यह कह सके की मैं ख़ुद में पूरा हूँ
की भले ही मैने गलतिया की हो कभी
पर मैने उन्हें ख़ुद सुधरा हैं
और फिर नही दोहराया हैं
और यह कह सके की मैं समझता हूँ की "मैं अपनी आप में एक पूरा इंसान हूँ"
और एक पूरे इंसान को "और पूरा" बनाने की औकात रखता हूँ

खैर, अब अधूरापन काम की जिद्दो जहत में डूब कर ख़तम हो जाएगा

और मैं फिर से ख्वाब सजाने में लग जाऊँगा

पर यह सवाल वही का वहीँ रह जाएगा

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