Friday, October 10, 2008

वार्तालाप



आजकल कुछ अजीब सी हलचल हैं जीवन में
पीछे झाँक कर देखता हूँ तो पिछले हालत मुझसे बात करते हैं
मुझसे कान में फुस्सुसा कर बोल जाते हैं
सारे ख्वाब जो मैने देखे थे उस समय
कुछ पूरे हो गए और कुछ अधूरे रह गए
और वोह पुरानी बातें जिन की वजह से
मैने अपनी ज़िन्दगी यूँ बनायी और यहाँ तक आया

पर एक सवाल ने पिछले कुछ दिनों से घेरा हुआ हैं
की इस सब के बीच
कब और कैसे मैने अपनी आप को दुनिया से काट दिया
वोह सब जरूरी भी था क्यूंकि
बुरे हादसों की याद भुलाने के लिए
और आगे बढ़ने के लिए
मुझे ख़ुद को काटना पड़ा
पर अब इस मंजिल पर
कुछ अकेलापन महसूस होता हैं

पर फिर भी अकेलापन तो हैं पर "
अधूरापन" नही हैं
यही सबसे बड़ा सच हैं जो सहारा देता हैं

अगर मैं सब समझोते कर लेता तोह अकेला तोह नही होता पर अधूरा जरूर हो जाता

साथी मिले न मिले
पर पूरा होना बहुत जरूरी हैं

शायद सबसे जरूरी हैं
खालीपन एक खोकला इंसान बनता हैं जो किसी और का सही मायनों में साथी भी नही बन सकता

अकेलापन अभिशाप नही हैं पर खालीपन जरूर होता

भाई कहता हैं की मैने अपनी सब तरफ़ काफ़ी कड़ी दीवार बना रखी
हैं

सही कहता हैं, पर हैरानी यह की कोई नही जो इस दीवार को भेद सके
पूरी दुनिया में क्या कोई नही

ऐसी भी कोई ख़ास दीवार नही हैं
सीधे साधे से उसूलों का ढांचा हैं जो एक सीधा साधा सा इंसान चाह रहा है भेदने को
मुखौटे वाले इंसान नही भेद
पाते

एक पूरा इंसान जो अकेला भले ही हो पर अधूरा न हो

एक ऐसा इंसान जो दोस्ती और रिश्तों को दुनियादारी से अलग कर देख पाए
जो सिर्फ़ ईमान से ख़ुद से यह कह सके की मैं ख़ुद में पूरा हूँ
की भले ही मैने गलतिया की हो कभी
पर मैने उन्हें ख़ुद सुधरा हैं
और फिर नही दोहराया हैं
और यह कह सके की मैं समझता हूँ की "मैं अपनी आप में एक पूरा इंसान हूँ"
और एक पूरे इंसान को "और पूरा" बनाने की औकात रखता हूँ

खैर, अब अधूरापन काम की जिद्दो जहत में डूब कर ख़तम हो जाएगा

और मैं फिर से ख्वाब सजाने में लग जाऊँगा

पर यह सवाल वही का वहीँ रह जाएगा

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