Monday, September 1, 2008

अन्दर वाला बन्दर



आज एक अजीब बात हो गई
कई दिनों बाद ख़ुद से फिर बात हो गई
अन्दर से वोह बोला, वाह बॉस खूब खेला यह खेल
मस्त रहा अब तक तुम्हारे फलसफे का ज़िन्दगी से मेल

दुनिया को खूब चलाया तुमने पर कब तक चलोगे
कभी न कभी "उन" जैसे ही बन जाओगे
मैं बोला की तुझे लगता यह मुमकिन हैं
तुझे कभी लगा तू मुझसे अलग है

वोह बोला की बॉस मान या न मान
एक दिन तू पकडेगा कान
और बोलेगा की मैं थक गया हूँ
फिर यह बेकार का झमेला क्यों

क्यों न अभी फ़ैसला हो जाए
क्यों बाद में रोया जाए

मैने भी सोचा की बात ठीक करता हैं
आदमीं एक बार ही मरता हैं

तो क्यों न आज ही बात साफ़ कर लूँ
या तोह जी भर के जी लूँ या अभी मर लूँ

उसने समझाना शुरू किया की भाई दुनिय में बड़ा झमेला हैं
तू २२ साल का था तब समझता था की यह सब मेला हैं
और तू खड़ा खड़ा तमाशा देख लेगा
ताली बजायेगा और चवन्नी फेक देगा

पर अब जब जमाना आखिरी चवन्नी उठा कर भाग चला
और तू रह गया खड़ा का खड़ा

अब खली जेब और खली पेट कैसे जियेगा
जीने के लिए क्या अपनी फलसफे का पसीना पिएगा

मैं बोला की बात तेरी बड़ी सही हैं
मेरी भी अब सुन जो मैने कही हैं

जीना सिर्फ़ शरीर का नही होता
हर आदमी ख़ुद अपना फलसफा हैं ढोता

ढोने से पहले ही यह बात साफ़ हो गई थी
वोह तारिख भी हिसाब से ४ मई थी
जब मैने ख़ुद से वादा कर लिया था
ख़ुद अपना फलसफा सिया था

खूब सोचा था उस दिन की आज के बाद पीछे नही देखना हैं
बस आगे जो आए उसे पीछे धकेलना हैं
जितना शक्क और शुबा करना था उस दिन कर लिया था
अन्दर जो भी था सब मार लिया था

उस दिन तुने जनम लेकर मेरा नया स्वरुप बनाया
पुराना चोल फेक यह रूप बनाया
उस दिन से आज तक अपनी ही धुन में हूँ
दुनिया से क्या करना जब मैं सिर्फ़ अपने ही मनन में हूँ

दुनिया तोह सिर्फ़ जरिए हैं अपने आप को खुश करने का
"वोह" जो कहते हैं "जीने" का
खुशी के लिए जिया और गम को मार भगाया
जो सही लगा उसे गले लगाया

यह सही हैं की दुनिया बेवकूफी की पूजा करती हैं
उनका उल्लू बनाओ तोह आप पर मरती हैं

पर यह सब तब जरूरी हो जाता हैं
जब दुनिया के लिए जिया जाता हैं

यहाँ तोह अपने से ही फुर्सत न मिलती
मनन में दुनिया की कोई कलि न खिलती

ख़ुद से ही सारी आरजू और ख़ुद से ही सारे इनाम मिल जाते हैं
दुनिया को बस मेरी चवन्नी और कुछ ताल मिल जाते हैं

तोह अब बता की दुनिया कैसे मुझे तोड़ पायेगी
कैसे रुलाएगी और कैसे सताएगी

वोह कुछ बोला नही बस मुस्कुराता रहा
मेरा चेहरा बस मुझे आइने से निहारता रहा

उसे और मुझे यह बात समझनी बहुत जरूरी थी
यह जंग अंदर की हैं बहार की नही

-- संदीप नागर (१ सितम्बर २००८)

3 comments:

nagardee said...

nice poem.

waise i dont understand why do u bother so much about people who do not subscribe to your point of view,

why does it have to be about proving all the time that all are idiots and u are seeing tamasha. why should it matter. they are just people , they'll go.

u will stay. thats what matters ,itsnt it ?

Sandeep said...

misinterpretation :)

par chalega...

i try said...

a very good poem,well expressed thoughts from your innerself. we all comeacross with some bad encounters in life.you too faced ....still life must go on for good. NEKI KAR DARIA MEA DAL. CARRY ON WITH GOOD THOUGHTS AND DEEDS.V

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